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‘समान नागरिक संहिता’ (UCC)- राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे !!!

संपादकीय

राजनीतिक दल वोट बैंक में लगेंगे ताला !!!

नई दिल्ली :- समान नागरिक संहिता अथवा समान आचार संहिता का अर्थ एक पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) कानून होता है जो सभी पंथ के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। दूसरे शब्दों में, अलग-अलग पंथों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही ‘समान नागरिक संहिता’ की मूल भावना है। समान नागरिक कानून से अभिप्राय कानूनों के वैसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी पंथ क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है। यह किसी भी पंथ जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है।

समान नागरिकता कानून के अंतर्गत आने वाले मुख्य विषय ये हैं-

  • व्यक्तिगत स्तर,
  • संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार,
  • विवाह, तलाक और गोद लेना।
समान नागरिक संहिता वाले पंथनिरपेक्ष देश :-

विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसे कानून लागू हैं। समान नागरिक संहिता से संचालित पन्थनिरपेक्ष देशों की संख्या बहुत अधिक है:-जैसे कि अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की , इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट, जैसे कई देश हैं जिन्होंने समान नागरिक संहिता लागू किया है।

भारत की स्थिति :-

भारत  में  समान  नागरिक  संहिता  लागू नहीं  है, बल्कि  भारत  में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं।हिंदूसिखजैन  और  बौद्ध  के  लिये  एक  व्यक्तिगत  कानून है, जबकि  मुसलमानों  और  इसाइयों के लिए अपने कानून हैं। मुसलमानों का कानून शरीअत पर आधारित है ; अन्य धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं।

समान नागरिक संहिता भारत में एक प्रस्ताव है जिसका उद्देश्य धर्मों, रीति-रिवाजों और परंपराओं पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों को धर्म, जाति, पंथ, यौन अभिविन्यास और लिंग के बावजूद सभी के लिए एक समान कानून के साथ बदलना है।

            हां, समान नागरिक संहिता का उल्लेख संविधान के भाग 4 में किया गया है, जिसमें कहा गया है कि राज्य “भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा”। संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी कि कानूनों का एक समान सेट होगा जो विवाह, तलाक, विरासत और गोद लेने के संबंध में हर धर्म के आदिम व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा। यूसीसी राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का हिस्सा है जो कानून की अदालत में लागू करने योग्य या न्यायसंगत नहीं है और देश के शासन के लिए मौलिक है।

मध्य प्रदेश में चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी के बाद समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर राजनीतिक बहस फिर से शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी ने मंगलवार को कहा कि भारत दो कानूनों पर नहीं चल सकता और समान नागरिक संहिता संविधान का हिस्सा है।

पीएम के बयान से देश भर में बहस छिड़ गई क्योंकि कई विपक्षी नेताओं ने पीएम मोदी पर कई राज्यों में चुनाव नजदीक आने पर राजनीतिक लाभ के लिए यूसीसी मुद्दा उठाने का आरोप लगाया है।

कांग्रेस नेताओं ने पीएम मोदी पर महंगाई, बेरोजगारी और मणिपुर की स्थिति जैसी वास्तविक समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए यूसीसी मुद्दे का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया।

ऑल  इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल  मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने मंगलवार को प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कहा, “भारत के प्रधानमंत्री भारत की विविधता और इसके बहुलवाद को एक समस्या मानते हैं। इसलिए, वह ऐसी बातें कहते हैं… शायद भारत के प्रधानमंत्री को समझ नहीं आता।” अनुच्छेद 29. क्या आप यूसीसी के नाम पर देश से उसकी बहुलता और विविधता को छीन लेंगे?

भारत में यह विवाद ब्रिटिशकाल से ही चला आ रहा है। अंग्रेज मुस्लिम समुदाय के निजी कानूनों में बदलाव कर उससे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। हालाँकि विभिन्न महिला आंदोलनों के कारण मुसलमानों के निजी कानूनों में थोड़ा बदलाव हुआ।

प्रक्रिया की शुरुआत 1882 के हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ।. हालाँकि समान नागरिकता कानून उस वक्त कमजोर पड़ने लगा, जब तथाकथित सेक्यूलरों ने मुस्लिम तलाक और विवाह कानून को लागू कर दिया। 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई।

1993 में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। इस कानून के कारण धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी हो गई। वहीं, कुछ मुसलमानों ने बदलाव का विरोध किया और दावा किया कि इससे देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी।

समान नागरिक संहिता से सम्भावित लाभ:- 

अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता बढ़ेगी। जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा।

ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था। समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। अभी तो कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।

धार्मिक रुढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये साथ ही ‘विधि के समक्ष समता’ की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये । वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है, इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये अहितकर है।

सर्वोच्च न्यायालय ने संपत्ति पर समान अधिकार और मंदिर प्रवेश के समान अधिकार जैसे न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समाज में समता हेतु उल्लेखनीय प्रयास किया है इसलिये सरकार तथा न्यायालय को समान नागरिक संहिता को लागू करने के समग्र एवं गंभीर प्रयास करने चाहिये।

 

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