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आलेख/विचार

“अगर हिन्दुओं पर हमला होगा तो वे चुप नहीं बैठेंगे, बल्कि जवाब देंगे।”- गोपाल पाठा

समीर सिंह 'भारत': मुख्य संपादक

Kolkata: भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम चरण यानी 1946 का वर्ष कई दृष्टियों से निर्णायक था। एक ओर अंग्रेज़ी हुकूमत कमजोर पड़ चुकी थी, दूसरी ओर देश के भीतर सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। बंगाल, बिहार, पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों में दंगे भड़क उठे थे। इन्हीं दंगों के बीच एक नाम उभरा जिसने इतिहास में हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ दी — गोपाल चंद्र मुखर्जी, जिन्हें आमतौर पर गोपाल पाठा कहा जाता है।

गोपाल पाठा का जीवन और उनकी भूमिका 1946 के महान कलकत्ता दंगे के दौरान बेहद चर्चा में रही। वे उस दौर में हिन्दू समाज के लिए एक ‘रक्षक’ के रूप में देखे गए, वहीं दूसरी तरफ़ कुछ लोगों ने उन्हें हिंसा और प्रतिहिंसा की राजनीति का प्रतीक माना। इस लेख में हम विस्तार से देखेंगे कि गोपाल पाठा कौन थे, 1946 की घटनाओं में उनकी भूमिका क्या रही, और उनके जीवन से जुड़ी ऐतिहासिक व सामाजिक जटिलताएँ क्या थीं।

गोपाल चंद्र मुखर्जी का जन्म 1913 में कोलकाता के बाउबाजार इलाके में हुआ था। उनका परिवार मांस व्यवसाय से जुड़ा हुआ था। गोपाल बचपन से ही तेज़-तर्रार, जुझारू और निर्भीक स्वभाव के माने जाते थे। चूँकि वे मांस व्यापारियों के बीच पले-बढ़े, इसलिए उन्हें लोग मज़ाक में या पहचान के तौर पर ‘पाठा’ (बकरा) कहकर बुलाने लगे। यही उपनाम आगे चलकर उनकी स्थायी पहचान बन गया।

गोपाल पठन-पाठन में अधिक रुचि नहीं रखते थे, लेकिन कुश्ती, अखाड़ा और संघर्ष की दुनिया उन्हें अधिक भाती थी। उनके व्यक्तित्व में ताकत, आत्मविश्वास और नेतृत्व क्षमता साफ झलकती थी।

1946 का भारत आज़ादी की दहलीज़ पर खड़ा था, लेकिन साथ ही सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति तेज़ हो चुकी थी। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने प्रत्यक्ष कार्रवाई (Direct Action) का आह्वान किया था।

16 अगस्त 1946 को ग्रेट कलकत्ता किलिंग (महान कलकत्ता हत्या कांड) हुआ। इस दिन मुस्लिम लीग ने “डायरेक्ट एक्शन डे” मनाने की घोषणा की, जिसका नारा था “लड़ो और हासिल करो”। लेकिन यह आंदोलन शीघ्र ही खूनी दंगों में बदल गया।

कलकत्ता की सड़कों पर चार दिन तक आग, हिंसा और लाशें बिछी रहीं। अनुमान है कि इन दंगों में 5,000 से अधिक लोग मारे गए और लाखों लोग बेघर हुए।

इन्हीं दंगों के दौरान गोपाल पाठा का नाम सामने आया। कहा जाता है कि जब मुस्लिम लीग के समर्थक जुलूस निकालते हुए हिंसा फैला रहे थे, तब हिन्दू इलाकों पर हमले शुरू हो गए। इस समय गोपाल पाठा ने अपने इलाके के युवकों और अखाड़े के लड़कों को इकट्ठा कर एक समूह बनाया।

उनका मकसद था – “अगर हिन्दुओं पर हमला होगा तो वे चुप नहीं बैठेंगे, बल्कि जवाब देंगे।”

गोपाल पाठा ने अपनी ताकत और संगठन क्षमता का इस्तेमाल कर एक तरह से हिन्दू ‘सेना’ खड़ी कर दी, जिसने दंगों के दौरान मुस्लिम लीग के हमलों का मुकाबला किया।

इतिहासकार मानते हैं कि गोपाल पाठा ने सिर्फ रक्षा ही नहीं की, बल्कि कई मौकों पर आक्रामक प्रतिकार भी किया। उन्होंने अपने साथियों को यह निर्देश दिया कि यदि किसी हिन्दू पर हमला हो तो उसी ताकत से जवाब दो।

“The Bengal Files” में गोपाल पाठा को शामिल करना इतिहास, सच्चाई और सिनेमाई असर – तीनों के लिए आवश्यक है।
उनके बिना फिल्म सिर्फ़ पीड़ितों की कहानी रह जाएगी, लेकिन उनके साथ फिल्म “संघर्ष और प्रतिरोध” दोनों की कहानी बन जाएगी।

उनकी यह नीति विवादित रही —

  • एक ओर हिन्दू समाज उन्हें अपना रक्षक मानकर पूजनीय मानने लगा।

  • वहीं दूसरी ओर, कुछ उदार और वामपंथी विचारधाराओं ने उन पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाया।

सच यह है कि उस समय की परिस्थितियाँ इतनी विकट थीं कि रक्षक और आक्रांता की सीमाएँ धुंधली पड़ चुकी थीं।

कलकत्ता दंगे चार दिन तक चले। इन दिनों गोपाल पाठा और उनके संगठन ने बाउबाजार, श्यामबाजार, बागबाजार और उत्तरी कोलकाता के कई हिस्सों में हिन्दुओं की रक्षा की।

कहा जाता है कि उन्होंने हथियारों का भी इंतजाम किया और युवकों को संगठित किया। यहां तक कि पुलिस और अंग्रेज़ प्रशासन भी इस हिंसा को रोकने में विफल रहे, लेकिन गोपाल पाठा की टुकड़ी ने कई मोहल्लों को मुस्लिम लीग के हमलों से बचाया।

गोपाल पाठा को लेकर कई विवाद भी उठे।

  • उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने भीड़ को उकसाया और बदले की कार्रवाई की।

  • कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनकी कार्यवाही ने हिंसा को और बढ़ा दिया।

  • वहीं, राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग मानते हैं कि अगर उन्होंने मोर्चा न संभाला होता तो हिन्दुओं की हज़ारों और जानें जातीं।

यह सच है कि गोपाल पाठा ने उस समय जो कदम उठाए, वे तत्कालीन हालात में सामूहिक सुरक्षा के लिए ज़रूरी समझे गए।

आज़ादी के बाद गोपाल पाठा धीरे-धीरे राजनीति और हिंसा से दूर होते गए। वे अपने मांस व्यवसाय और पारिवारिक जीवन में लग गए। स्थानीय स्तर पर लोग उन्हें अब भी सम्मान की दृष्टि से देखते थे।

वे कभी औपचारिक राजनीति में नहीं आए, लेकिन समाज में उनकी छवि एक मजबूत, प्रभावशाली और करिश्माई नेता की बनी रही।

1990 के दशक तक वे जीवित रहे और 2005 में उनकी मृत्यु हुई।

गोपाल पाठा को लेकर आज भी मतभेद हैं।

  • हिन्दू दृष्टिकोण से वे एक नायक थे, जिन्होंने संकट की घड़ी में समुदाय की रक्षा की।

  • आलोचकों की नज़र में वे हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने वाले थे।

  • इतिहासकारों के अनुसार गोपाल पाठा उस दौर की परिस्थितियों की उपज थे, जहाँ जीवन-मरण का संघर्ष प्रतिदिन की सच्चाई बन गया था।

उनकी छवि सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी नेताओं से भले तुलना न कर सके, लेकिन कोलकाता और बंगाल के इतिहास में उनका नाम एक अलग अध्याय के रूप में दर्ज है।

बंगाल के कई अखबारों, संस्मरणों और लेखों में गोपाल पाठा का उल्लेख मिलता है। हाल के वर्षों में उन पर आधारित डॉक्यूमेंट्री और चर्चाएँ भी हुई हैं। कुछ लेखक उन्हें “हिन्दू रक्षा संगठन का प्रतीक” कहते हैं, तो कुछ उन्हें “1946 की हिंसा का प्रतीक” मानते हैं।

गोपाल पाठा का जीवन हमें यह समझाता है कि इतिहास केवल काले और सफेद रंगों में नहीं लिखा जा सकता। 1946 का कलकत्ता दंगा भारत के विभाजन की पीड़ा का प्रतीक है और गोपाल पाठा उस पीड़ा के बीच उभरे एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने समाज की रक्षा के लिए हथियार उठाए।

उनका नाम आज भी विवादित है, लेकिन यह तय है कि वे उस दौर की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के प्रतिनिधि चरित्र थे।

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