Advertisement
Sankranti-News

कडेगांव की मोहर्रम यात्रा: सौ साल से गूंज रही है हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल

जावेद अत्तार : सहायक संपादक

महाराष्ट्र:- महाराष्ट्र में कई स्थानों पर मोहर्रम का पर्व श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। ताजिये और पंजे बनाए जाते हैं, और बड़े धूमधाम से जुलूस निकलते हैं। इन समारोहों में हिन्दू समाज की भागीदारी भी उल्लेखनीय होती है। हर शहर की मोहर्रम की अपनी एक अलग पहचान होती है। मराठी संस्कृति और मोहर्रम के इस अद्भुत संगम से एक अनोखा सामाजिक ताना-बाना बनता है। सांगली जिले के कडेगांव की मोहर्रम यात्रा तो पूरे भारत में प्रसिद्ध है। इस परंपरा के इतिहास को दर्शाने वाला यह एक विशेष लेख…

हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल – कडेगांव

सांगली जिले का छोटा-सा गांव ‘कडेगांव’ हिंदू-मुस्लिम एकता का जीवंत प्रतीक है। पिछले सौ वर्षों से इस गांव में सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर पर्व मनाते आ रहे हैं। यहां राष्ट्रीय एकता जैसे रगों में समाई हुई लगती है।

हालांकि मोहर्रम मूलतः मुस्लिम समुदाय का पर्व है, फिर भी गणेशोत्सव की तरह ही यह कई बार धार्मिक तनाव का कारण बन चुका है। लेकिन कडेगांव की मोहर्रम यात्रा में हिंदुओं की भागीदारी सुनिश्चित करने और दोनों समुदायों को एक साथ इस पर्व को मनाने की प्रेरणा दी भाऊसाहेब देशपांडे ने – जो कि औंध रियासत के जामाता और इनामदार थे।

भाऊसाहेब ने यह सिर्फ आदेश नहीं दिया, बल्कि पूरे गांव में प्रेमपूर्वक इसे स्वीकार्य भी बनाया। गांववाले उनसे प्रेम करते थे और उनकी बातों का मान रखते थे।

एक नवस और एक प्रतिज्ञा से जन्मी भव्य परंपरा

कहते हैं कि भाऊसाहेब ने एक बार पीर के सामने मन्नत (नवस) मानी थी – “अगर मुझे पुत्र की प्राप्ति हुई तो मैं ताजिया (ताबूत) बनाऊंगा।” पुत्र की प्राप्ति हुई और उन्होंने ताबूत बनाना शुरू किया।

एक बार वे कराड (जिला सातारा) गए, जहां कई ताबूत निकलते थे, लेकिन वहां उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जो उनके पद के अनुसार अपेक्षित था। इससे वे मन ही मन आहत हुए और उन्होंने प्रतिज्ञा की – “अब मैं अपने कडेगांव में इससे भी ऊँचा ताबूत बनाऊंगा।” और उन्होंने 110, 115 और यहाँ तक कि 120 फुट ऊंचे ताबूत बनाकर यह सिद्ध भी कर दिया।

लेकिन वे यहीं नहीं रुके – उन्होंने हिंदू समाज को भी ताबूत निर्माण में सम्मिलित किया। आज से सौ साल पहले, जब हिंदू समाज ऐसे धार्मिक आयोजनों से दूर रहता था, तब उनके आग्रह से कडेगांव में हिंदू भी ताबूत बनाने लगे। भारत के अन्य किसी भी कोने में नहीं देखे गए हिंदू ताबूत – कडेगांव की यह परंपरा आज भी जीवित है।

कडेगांव की एक और खास बात – यहां ताबूत उठाने का प्रथम मान हिंदुओं को दिया जाता है। शायद भारत का यह एकमात्र गांव होगा जहाँ यह गौरव हिन्दुओं को प्राप्त है।

हिंदू-मुस्लिम भाईचारे से बनते हैं ताबूत

गांव के बारह बलुतेदार समुदायों को भी इस परंपरा में सम्मिलित किया गया। आज यहां 13 ताबूत निकलते हैं – देशपांडे, सुतार, वाणी जैसे हिंदुओं के और पटेल, पिरजादे, कळवा, सातभाई जैसे मुस्लिम समुदायों के। इन में से पाटील, कळवा और सातभाई के ताबूत विशेष मान्यता रखते हैं। सातभाई का ताबूत मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला माना जाता है।

ताबूत निर्माण की अद्भुत परंपरा

बकरी ईद के बाद मोहर्रम की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। प्रतिपदा के चंद्र दर्शन के बाद भूमि पूजन कर निर्माण प्रारंभ होता है। ताबूत का निर्माण ‘कळस’ से शुरू होता है, फिर अष्टकोणीय आकार के बांस के मंज़िल (जिसे यहां “कांडकी” कहते हैं) बनते हैं। उन्हें रंग-बिरंगे कागजों, हंडियों, नारियल, नोटों, कलाकृतियों, और चित्रों से सजाया जाता है।

विशेष बात यह है कि ताबूत की रचना में कहीं भी गाँठ नहीं बाँधी जाती! केवल चिकनी मिट्टी से रस्सी को चिपकाकर बांधाई की जाती है – और यह इतना मजबूत होता है कि भारी बारिश में ही ढीला हो सकता है।

अंत में ये ताबूत एक बड़ी “पलंगड़ी” पर रखे जाते हैं, जिसमें शेर, बाघ, और हरिण की आकृतियाँ रहती हैं। तब जाकर ये मिरवणुकी (जुलूस) के लिए तैयार होते हैं।

मेल मंडलों की सजीव परंपरा – पांच दिन, पांच रूप

कडेगांव में वार पेठ और बुधवार पेठ नाम के पारंपरिक मंडल हैं। ये मंडल पहले दिन फकीर का, दूसरे दिन भाट का, तीसरे दिन नानकशा, चौथे दिन जोगी और पाँचवें दिन गोरख का रूप धारण करते हैं।

तीसरे दिन, जब “हरदम कौशलवान, हुसैन का मातम करे दिन रात…” जैसे गीत गूंजते हैं, तब नानकशा का रूप पूरे गांव में घूमता है।
चौथे दिन, जोगी बनकर गाये जाने वाले गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित होते हैं और यह कार्यक्रम सुबह तक चलता है।
पाँचवे दिन, गोरख का रूप निकलता है – कोका (तंतुवाद्य) लेकर मंडल गाँवभर घूमते हैं और अंत में भैरवनाथ मंदिर के सामने उनकी भेंट होती है। यह सारा माहौल आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर से भर जाता है।

इन सभी गीतों में –
“प्यारा प्यारा देश हमारा, अब एकता का करो पुकारा”
जैसे राष्ट्रीय गीत भी गाए जाते हैं। इन गीतों की रचना पुराने प्रतिभावान कवियों ने की थी और ये परंपरा आज भी अक्षुण्ण है।

कत्तल की रात – गहराई और श्रद्धा का चरम क्षण

कत्तल की रात सबसे महत्वपूर्ण होती है। उस रात गोरख का अंतिम रूप और ताबूतों की पूजा होती है। अगले दिन सुबह सभी ताबूत भैरवनाथ मंदिर के सामने इकट्ठा होते हैं – यह क्षण बेहद भावनात्मक होता है। ताबूतों की “गळाभेट” (आपसी मिलन) होती है – जिसे देखने देशभर से हजारों श्रद्धालु आते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
.site-below-footer-wrap[data-section="section-below-footer-builder"] { margin-bottom: 40px;}