राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM) की विफलता: किसानों को नहीं मिला अपेक्षित लाभ
समीर कुमार सिंह : प्रधान संपादक

नई दिल्ली— कृषि-आधारित आय बढ़ाने और ग्रामीण आजीविका को मज़बूत करने के बड़े वादों के बीच राष्ट्रीय पशुधन मिशन (National Livestock Mission—NLM) को 2014-15 में “गेम-चेंजर” की तरह पेश किया गया था। लक्ष्य थे—बेहतर नस्ल सुधार, सस्ती चारा-व्यवस्था, पशु-स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, पोल्ट्री-बकरी-भेड़-मधुमक्खी पालन को बढ़ावा, और अंततः किसानों की आय में स्थायी बढ़ोतरी। दस साल से अधिक समय बाद तस्वीर उलटी दिखती है: लाभ का बड़ा हिस्सा योजना-पुस्तिकाओं और प्रेज़ेंटेशनों में सिमट गया है, जबकि छोटे और भूमिहीन पशुपालक—जो सबसे ज़्यादा सहारे के हक़दार थे—प्रक्रियात्मक उलझनों, ऋण-अनुशंसा की दीवारों और बाज़ार-जोखिम के बीच फँसे रह गए।
योजना का ढाँचा: बड़े इरादे, बिखरी क्रियान्विति
NLM चार broad स्तंभों पर बना:
-
नस्ल सुधार एवं प्रजनन सेवाएँ – कृत्रिम गर्भाधान, नस्ल रजिस्ट्रेशन, जर्मप्लाज़्म/सेमेन स्टेशनों का उन्नयन।
-
चारा एवं चारा-बीज़ विकास – फॉडर सीड उत्पादन, साइलो/हाई-डेन्सिटी फ़ॉडर, चारे का मूल्य-स्थिरीकरण।
-
पशु-स्वास्थ्य और रोग-नियंत्रण – टीकाकरण अभियानों का विस्तार, मोबाइल वेटरनरी यूनिट्स, कोल्ड-चेन।
-
उद्यमिता और आजीविका – बकरी/भेड़ इकाइयाँ, पोल्ट्री, मधुमक्खी, सूअर पालन, वैल्यू-चेन, FPO/SHG आधारित मॉडल, और क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी।
कागज़ पर यह तंत्र मज़बूत दिखता है; कमज़ोरी वहाँ आई जहाँ राज्य कार्यान्वयन योजनाएँ (AIP) और ज़िला-स्तरीय माइक्रो-एक्शन प्लान वास्तविक ज़रूरतों से मेल नहीं खाते। कई जिलों में लक्ष्य-निर्धारण “टॉप-डाउन” रहा—स्थानीय नस्लों, जल-जलवायु, चारा-पैटर्न और बाज़ार दूरी जैसे कारकों को पर्याप्त प्राथमिकता नहीं मिली।
किसान क्यों कहते हैं—“हमें योजना दिखी ही नहीं”?
-
सूचना का अभाव: पशुपालक बताते हैं कि NLM के घटक, पात्रता, आवेदन कागज़ात और समयसीमा की जानकारी ग्राम स्तर पर व्यवस्थित ढंग से पहुंची ही नहीं। जहां सूचनाएँ गईं भी, वहाँ पंचायत/ब्लॉक स्तर पर हेल्पडेस्क या मोबाइल काउंसलिंग की कमी के कारण आवेदन फँसते रहे।
-
जटिल आवेदन व दस्तावेज़: जाति/आय/भूमि-पत्र/नो-ड्यू सर्टिफ़िकेट/बैंक-संकल्प—कई छोटे पशुपालक, विशेषकर भूमिहीन या पट्टेदार, इन दफ्तरी मांगों में अटक गए।
-
क्रेडिट-लिंक्ड बाधाएँ: कई घटक बैंक-ऋण से जुड़े हैं। पर ग्रामीण शाखाएँ—जो जोखिम-प्रबंधन के नाम पर—छोटी इकाइयों को ऋण देने से कतराती रहीं। “कोलेट्रल” और CIBIL इतिहास छोटे पशुपालकों के लिए बड़ी बाधा बने।
-
सब्सिडी का विलंब: कई राज्यों में लाभांश/सब्सिडी का भुगतान महीनों—कहीं-कहीं साल तक—अटका रहा, जिससे किसान ब्याज-भार में दबे।
-
बीमा/दुर्घटना कवरेज: पशु-मृत्यु/रोग/आपदा बीमा की प्रीमियम-सब्सिडी और क्लेम-निपटान की प्रक्रिया धीमी और असंगत दिखी; परिणाम—किसान जोखिम-लालच के बीच फँसे रहे।
केस-स्टडी 1: सीमांत किसान रामधन (पूर्वी यूपी) — “यूनिट स्वीकृत, ऋण अस्वीकृत”
प्रोफ़ाइल: 1.5 एकड़ खेत, 3 देसी गाय, 4 बकरियाँ।
योजना: NLM के अंतर्गत 20-बकरी यूनिट के लिए आवेदन।
हकीकत: पशुपालन विभाग से प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनी, लेकिन बैंक ने “रीपेमेंट कैश-फ़्लो अस्पष्ट” बताकर ऋण ठुकरा दिया। बार-बार दौरे के बाद भी नो-ड्यू व ज़मानत की अड़चन बनी रही।
नतीजा: किसान ने अनौपचारिक कर्ज़ पर 8 बकरियाँ खरीदीं; पहले साल में दो मौत—बीमा-लाभ नहीं मिला क्योंकि पशु-टैगिंग और क्लेम-फाइलिंग समय पर पूरी नहीं हो सकी।
संदेश: क्रेडिट-डिज़ाइन और बीमा-प्रबंधन—दोनों में जमीन-स्तर पर दोस्ताना, हैंडहोल्डिंग व्यवस्था के बिना उद्यमिता टिकाऊ नहीं।
केस-स्टडी 2: मेवाड़ की महिला SHG (दक्षिणी राजस्थान) — “चारा महँगा, वैक्सीन दूर”
प्रोफ़ाइल: 12 महिलाएँ, 60 बकरियाँ; SHG को NLM मॉड्यूल पर ट्रेनिंग मिली।
समस्या: सूखे का साल—स्वदेशी झाड़-पत्तों का चारा कम; क्यूब/पेलिट महँगे, लॉजिस्टिक्स बिखरा। दो बार पेस्ट/एंटरोटॉक्सिमिया जैसी समस्याएँ आईं; मोबाइल वेट यूनिट 40 किमी दूर।
नतीजा: 15% हर्ड-लॉस, नकदी-चक्र टूटा; महिलाएँ मध्य-सीज़न डिस्टेसल (ऑफ-सीज़न बेचकर घाटा) को मजबूर।
संदेश: क्लाइमेट-रेज़िलिएंट चारा रणनीति, नज़दीकी टीकाकरण केंद्र, और स्थानीय वैक्सीन-कोल्ड-चेन के बिना NLM का “लाइवलीहुड-प्रॉमिस” कमज़ोर।
केस-स्टडी 3: पूर्वोत्तर का सूअर-पालन क्लस्टर — “बाज़ार जोड़ो, वरना मूल्य ढहेगा”
प्रोफ़ाइल: 35 सूअर पालक, 180 सूअर; राज्य-स्तरीय परियोजना से शेड/फ़ीड सपोर्ट मिला।
समस्या: अफ्रीकन स्वाइन फीवर (ASF) के डर से राज्य सीमाएँ समय-समय पर सील; मूल्य शृंखला (फ़ीड-टू-मार्केट) में अवरोध।
नतीजा: ओवरएजिंग स्टॉक, फ़ीड-लागत उछली, बिक्री कम दाम पर; बीमा/कम्पेन्सेशन अस्पष्ट।
संदेश: NLM में रोग-आउटब्रेक रिस्क के लिए स्पष्ट कंटिजेंसी फंड, मार्केट डायवर्सिफ़िकेशन, ई-मार्केट/कॉन्ट्रैक्ट ज़रूरी।
कहाँ चूकी क्रियान्विति? दस प्रमुख विफलताएँ
-
लक्ष्य-निर्धारण में “एक-सा नुस्खा” – भौगोलिक विविधता और स्थानीय नस्ल-समर्थक रणनीतियाँ कम।
-
क्रेडिट की कठोर शर्तें – छोटे/भूमिहीन पशुपालकों के अनुकूल बिना-जमानत/फ्लेक्सी-रीपेमेंट उत्पादों का अभाव।
-
सब्सिडी/DBT में देरी – परियोजना-गतिविधि और भुगतान-चक्र के बीच लंबा अंतराल।
-
चारा-नीति का कमजोर निष्पादन – फॉडर-सीड का समय पर वितरण, कस्टम-हायरिंग/साइलो की कमी; किमत-स्थिरीकरण तंत्र अधूरा।
-
वेटरनरी मानव-संसाधन गैप – पशु-डॉक्टर/पैरावेट की भारी कमी; मोबाइल यूनिट्स सीमित/दूर।
-
बीमा/टैगिंग/रिकॉर्ड-कीपिंग – जटिल क्लेम, टैटू/ईयर-टैग में देरी; पोस्ट-मॉर्टेम/फ़ोटो/जियो-टैग जैसे औपचारिकताएँ किसान के बस से बाहर।
-
मूल्य-शृंखला और विपणन – FPO/SHG के साथ खरीद-गारंटी, प्रोसेसिंग, कोल्ड-चेन का कमजोर एकीकरण।
-
डेटा पारदर्शिता – राज्य/ज़िला-वार फिजिकल-आउटकम (उत्पादन, मृत्युदर, मार्जिन) का ओपन डैशबोर्ड नहीं; इनपुट-व्यय ही प्रगति मानक बना।
-
लैंगिक/समावेशन लक्ष्यों का सतही निर्वाह – महिला/SC-ST/भूमिहीन के वास्तविक पहुँच पर निगरानी ढीली।
-
जलवायु-जोखिम एकीकरण – सूखा/बाढ़/हीट-स्ट्रेस के एडैप्टेशन पैकेज (शेड कूलिंग, जल-सोर्सिंग, हाइड्रोपोनिक फॉडर) का सीमित स्केल।
“सब ठीक चल रहा है”—सरकारी दावों की पड़ताल
-
दावा: “लाखों पशुपालकों को प्रशिक्षण।”
जमीनी सवाल: प्रशिक्षण कितने दिनों/घंटों का? क्या पोस्ट-ट्रेनिंग हैंडहोल्डिंग हुआ? प्रशिक्षण के बाद क्रेडिट/बीमा/बाज़ार तक वास्तविक पहुँच बनी? -
दावा: “फॉडर-सीड का बड़े पैमाने पर वितरण।”
जमीनी सवाल: बुआई समय पर हुई? वर्षा/सिचाई के अनुरूप किस्में दीं? जर्मिनेशन रेट और फ़ॉडर-यील्ड का मापन हुआ? -
दावा: “मोबाइल वेट यूनिट्स से इलाज पहुँचा।”
जमीनी सवाल: क्लस्टर से यूनिट की औसत दूरी कितनी? रिस्पॉन्स टाइम और दवाइयों की उपलब्धता का रिकॉर्ड है? -
दावा: “उद्यमिता के लिए सब्सिडी।”
जमीनी सवाल: सब्सिडी कितने दिनों में मिली? NPA/डिफ़ॉल्ट दर क्या? प्रति-इकाई लाभ का स्वतंत्र आकलन हुआ?
लागत-मूल्य गणित: “लाभ” का मिथक कैसे बनता है?
कई प्रोजेक्ट रिपोर्ट आदर्श स्थितियों में लाभदायक दिखती हैं—
-
फ़ीड-टू-गैन को स्थिर मान लिया जाता है, जबकि मौसमी उतार-चढ़ाव बड़ा होता है।
-
मृत्युदर/रोग-जोखिम को कम आँका जाता है; ASF/HS/ET जैसे शॉक्स का प्रावधान नहीं।
-
बाज़ार-दूरी/ट्रांसपोर्ट लागत को नगण्य मानते हैं; असल में यह ग्रामीण भारत में महत्वपूर्ण है।
-
डिस्टेसल/ड्रॉप-आउट (कर्ज़ दबाव में समय पूर्व बिक्री) का गणित नहीं जोड़ा जाता।
परिणाम—कागज़ पर “लाभ”; ज़मीन पर पतला मार्जिन या नुकसान।
महिलाओं, भूमिहीनों और युवाओं का छूटा अवसर
-
महिलाएँ—SHGs के माध्यम से सबसे तेज़ विस्तार संभव था, पर कस्टम-फ़ीड सप्लाई, बच्चों की देखभाल-अनुकूल समय, नज़दीकी हेल्थ सेवाएँ और डिजिटल-लेनदेन सहायता के बिना स्केल सीमित।
-
भूमिहीन—चराई/आश्रय-स्थान के अभाव और किराए/साझेदारी मॉडल की वैधानिक अनिश्चितता; NLM में डिज़ाइन-आर्किटेक्चर नहीं जो उन्हें प्राथमिकता दे।
-
युवा—एग्री-प्रेन्योरशिप के लिए वर्किंग कैपिटल/रीपेमेंट मोरैटोरियम/मेंटरशिप के पैकेज सीमित; इससे “नया खून” योजना में नहीं जुड़ा।
पशु-स्वास्थ्य: वैक्सीनेशन के आँकड़े बनाम रोग-भार की हकीकत
राज्यों में “कितने पशुओं का टीकाकरण हुआ”—यह इनपुट मैट्रिक खूब रिपोर्ट होती है। पर बीमारी का वास्तविक बोझ, केस-फैटेलिटी रेट, ब्रेकआउट की आवृत्ति, और फील्ड-लेवल एंटीबॉडी टाइटर जैसे आउटपुट/आउटकम संकेतकों की निगरानी कमजोर रही। कई जिलों में कोल्ड-चेन बाधित हुई—बिजली/लॉजिस्टिक्स और मानव संसाधन के कारण—जिससे वैक्सीन इफेक्टिवनेस पर सवाल उठे।
“फॉडर पहले”—पर यही सबसे आख़िरी में
पशुपालन का सबसे बड़ा स्थायी खर्च चारा है। NLM में फॉडर घटक रहा, पर—
-
समुदाय-आधारित फॉडर बैंक/साइलो व्यापक नहीं बने;
-
हाई-डेन्सिटी फॉडर (नेपियर/हाइब्रिड) के लिए नर्सरी/रोपे की सतत आपूर्ति नहीं;
-
हाइड्रोपोनिक्स/एग्री-रेज़िड्यू पेलिटाइजेशन जैसे नवाचार पायलट से आगे नहीं बढ़े;
-
मूल्य-स्थिरीकरण का तंत्र अनुपस्थित; सूखा/बाढ़ वर्ष में कीमतें आसमान छूती हैं।
जब तक फ़ीड-कॉस्ट शॉक से सुरक्षा नहीं, तब तक उद्यमिता नाज़ुक रहेगी।
बाज़ार-लिंक: “उत्पादन बढ़ाओ” कहना आसान, “बेचो कहाँ” कठिन
दूध/अंडा/मांस/शहद—सबके लिए कलेक्शन-लॉजिस्टिक्स, क्वालिटी स्टैंडर्ड, प्रोसेसिंग और ब्रांडिंग की आवश्यकता है। NLM में FPO/SHG/क्लस्टर बनाने की बात तो रही, पर ऑफ़-टेक एग्रीमेंट, फॉरवर्ड-लिंक, ई-मार्केटप्लेस और क़ीमत खोज (Price Discovery) की संस्थाएँ बहुत कम जगह बनीं। परिणाम—किसान मध्यस्थों पर निर्भर रहे और मूल्य-शक्ति कमजोर रही।
क्या कहता है बैंकिंग तंत्र?
ग्रामीण बैंकों का तर्क: NPA जोखिम, पशुधन के री-परपज़ेबल कोलेट्रल का अभाव, मोरैटोरियम की माँग और आमदनी का मौसमी स्वभाव। समाधान के लिए—
-
क्रेडिट गारंटी फ़ंड (पशुपालन-विशेष) का विस्तार,
-
इंडेक्स-आधारित पशु-बीमा,
-
किस्त-समंजन (दूध/अंडा सप्लाई के बिल से स्वचालित EMI काटना),
-
ब्लॉक/क्लस्टर एग्रीगेटर के साथ ट्राइ-पार्टी एग्रीमेंट—जहाँ क्रय-संगठन, बैंक और किसान एक साथ बँधें।
नीति-स्तर पर क्या बदले?
-
लाभार्थी-केंद्रित डिज़ाइन: भूमिहीन/महिला/SC-ST/युवा के लिए डिफ़रेंशियल स्कीम-रूट—कम दस्तावेज़, नो-कोलेट्रल माइक्रो-लोन, अधिक सब्सिडी-इंटेंसिटी, हैंडहोल्डिंग।
-
क्रेडिट-इनोवेशन: किस्त-लचीलापन, रेवेन्यू-लिंक्ड EMI, और कम्बाइंड क्रेडिट+बीमा+चारा कूपन पैकेज।
-
फॉडर-फर्स्ट मिशन: पंचायत/क्लस्टर स्तर पर फॉडर बैंक, कलेक्टिव साइलो, हाइड्रोपोनिक्स माइक्रो-ग्रांट, फसल-अवशेष पेलिटाइजेशन; सूखा-बाढ़ वर्ष में प्राइस-स्टेबलाइज़ेशन फंड।
-
वेटरनरी एक्सपैंशन: पैरावेट/कम्युनिटी एनिमल हेल्थ वर्कर की बड़ी खेप; लास्ट-माइल कोल्ड-चेन और 30-मिनट रिस्पॉन्स प्रोटोकॉल।
-
बीमा का कायाकल्प: इंडेक्स/पैरामीट्रिक उत्पाद (हीट-इंडेक्स, रोग-आउटब्रेक); डिजिटल टैगिंग से ऑटो-क्लेम, T+7 सेटलमेंट लक्ष्य।
-
मार्केट गारंटी: डेयरी/मीट/एग/हनी के लिए क्लस्टर-आधारित ऑफ़-टेक MoU, क्वालिटी-स्टैंडर्ड ट्रेनिंग, मिनी-प्रोसेसिंग यूनिट और ब्रांडिंग सपोर्ट।
-
पारदर्शी डेटा डैशबोर्ड: राज्य/ज़िला-वार आउटकम KPI—मृत्युदर, दूध-उत्पादन, फीड-कॉस्ट, लाभांश, क्लेम समय—ओपन-डैशबोर्ड पर।
-
क्लाइमेट रेज़िलिएंस: शेड-कूलिंग/मिस्टिंग, जल-सोर्सिंग, पशु-हीट-स्ट्रेस अलर्ट, कृषि-बीमा के साथ कन्वर्जेन्स।
-
स्थानीय नस्लों पर फोकस: कम-इनपुट, उच्च-रेज़िलिएंस नस्लों का सस्टेनेबल सुधार; “उच्च-दूध” के पीछे भागते हुए जलवायु अनुकूलता न भूलें।
-
लास्ट-माइल फैसिलिटेटर: हर क्लस्टर में उद्यम साथी (Enterprise Facilitator)—दस्तावेज़ीकरण, बैंक-लायज़न, बाज़ार-संपर्क और बीमा-क्लेम में हाथ पकड़कर साथ।
विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
-
डॉ. सीमा त्रिपाठी, कृषि-अर्थशास्त्री: “योजना की आर्थिक सफलता फॉडर-लागत और बीमा-डिज़ाइन पर टिकी है। जब तक इन दो पिलर्स पर ठोस काम नहीं, क्रेडिट और सब्सिडी अकेले नतीजा नहीं देंगे।”
-
डॉ. अर्जुन कश्यप, वेटरनरी पब्लिक हेल्थ: “आउटब्रेक-तैयारी और एंटीमाइक्रोबियल स्टूअर्डशिप का एकीकृत ढाँचा जरूरी है। बीमारियों के ख़तरे बढ़ रहे हैं—डेटा-ड्रिवन अप्रोच अपनानी होगी।”
-
सुनैना देव, लिवेलिहुड प्रैक्टिशनर: “महिलाओं के साथ क्रेच/टाइम-फ्लेक्स, दरवाजे पर प्रशिक्षण और डिजिटल भुगतान सहायता जोड़िए—परिणाम बदलते दिखेंगे।”
“किसानों की आवाज़” — मैदान से तीन छोटे बयान
-
बूंदी, राजस्थान—भेड़पालक: “टीका कैंप की खबर देरी से मिलती है। हम चराई पर होते हैं; मिस हो जाए तो पूरे झुंड पर असर।”
-
दरभंगा, बिहार—दूध उत्पादक: “समिति तक दूध पहुँचा तो दाम अच्छा, पर गर्मी में कलेक्शन वाहन देर से आता है—दूध फट जाए तो सारा परिश्रम शून्य।”
-
यवतमाल, महाराष्ट्र—बकरीपालक: “साइलो की ट्रेनिंग मिली, पर कलेक्टिव इक्विपमेंट नहीं। अकेले किसान के लिए लागत भारी है।”
सरकार बनाम ज़मीन: एक नज़र में (बॉक्स-आउट)
सरकारी लक्ष्य | जमीनी निष्कर्ष |
---|---|
नस्ल सुधार से उत्पादन वृद्धि | उत्पादन तब बढ़ता है जब चारा+स्वास्थ्य+बाज़ार साथ चले; अकेला नस्ल सुधार पर्याप्त नहीं। |
मोबाइल वेट यूनिट से पहुँच | स्टाफ/ईंधन/दवा की कमी; औसत दूरी अधिक। |
उद्यमिता सब्सिडी | क्रेडिट बाधाएँ, DBT में विलंब; वास्तविक लाभार्थी कम। |
फॉडर-समर्थन | मूल्य-स्थिरता और सामुदायिक साइलो का अभाव; सूखे में संकट। |
बीमा सुरक्षा | क्लेम जटिल, सेटलमेंट में देरी; विश्वास घटा। |
संक्रांति मीडिया संपादकीय निष्कर्ष: योजना नहीं, क्रियान्विति बदलिए
NLM का विचार त्रुटिपूर्ण नहीं—तंत्र और ट्रैकिंग त्रुटिपूर्ण है। छोटे, भूमिहीन और महिला पशुपालक अगर केंद्र में नहीं हैं, तो कोई भी livestock मिशन आय-वृद्धि का सशक्त जरिया नहीं बन पाएगा। फॉडर-फर्स्ट, बीमा-रीडिज़ाइन, क्रेडिट-इनोवेशन, और मार्केट-गारंटी—ये चार कीलें गड़ीं तो ही गाड़ी चलेगी। वरना सब्सिडी और ट्रेनिंग के आँकड़े बढ़ते रहेंगे, और किसान उसी जोखिम-गाड़ी के खराब ब्रेक के साथ ढलान पर फिसलते रहेंगे।
अब गेंद नीति-निर्माताओं और राज्यों के पाले में है। पारदर्शी डैशबोर्ड, समावेशी लक्ष्य, और लास्ट-माइल फैसिलिटेशन के बिना NLM की कहानी “कागज़ी सफलताएँ, जमीनी विफलताएँ” के चक्र में फँसी रहेगी—और किसान वही सवाल पूछते रहेंगे:
“योजना किसके लिए—हमारे लिए, या फ़ाइलों के लिए?”