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अंतर्राष्ट्रीय

बांग्लादेशी नागरिकों का कथित ‘अवैध’ निवास

समीर सिंह 'भारत' : मुख्य संपादक

भारत-बांग्लादेश सीमा — ख़ासकर पश्चिम बंगाल और उससे सटे जिलों के ग्रामीण व सीमावर्ती इलाकों — वर्षों से प्रवासन, व्यापार, सांस्कृतिक जुड़ाव और कभी-कभार सीमा मामलों के चलते राष्ट्रीय ध्यान का केंद्र रहे हैं। इन सीमावर्ती क्षेत्रों में बांग्लादेश से आए लोगों का बसेरा, उनके कानूनी-नागरिक स्थिति पर विवाद, और सुरक्षा व मानवाधिकार के सवाल अक्सर राजनीति, प्रशासन और जनजीवन का हिस्सा बनते रहे हैं। हाल के महीनों में जहां केंद्रीय और स्थानिक स्तर पर पहचान-और-पुनरावलोकन अभियान (जैसे SIR — Special Intensive Revision) चले हैं, वहीं इन क्षेत्रों से जुड़े घटनाक्रम और आँकड़े भी आलोचनात्मक चर्चा में रहे हैं।

सीमा पर हालिया प्रवृत्तियाँ — क्या बदल रहा है?

हालिया सरकारी आँकड़ों और मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, पश्चिम बंगाल की सीमा से अवैध प्रवेश के मामलों, हिरासत और ‘पिछ्ले वर्षों से भारत में रह रहे’ लोगों के स्वदेश वापसी के सिलसिले में परिवर्तन देखने को मिला है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बताया है कि 2025 के पहले सात महीनों में पश्चिम बंगाल में जिन ‘अवैध प्रवासियों/इनफिल्ट्रेटर’ को रोका गया या पकड़ा गया, उनकी संख्या कही गई आँकड़ों के अनुरूप रही — पर तुलना में 2024 और 2023 की तुलना में कुछ वर्ष-वर्ष में उतार-चढ़ाव भी दिखे। इस तरह के आधिकारिक आँकड़े यह बताते हैं कि सुरक्षा बलों की सक्रियता, स्थानीय पहचान-अभियान और राजनीतिक/प्रशासनिक कार्रवाइयों का प्रत्यक्ष प्रभाव सीमा पर देखे जा रहे व्यवहार पर पड़ता है।

इसी दौरान कुछ सीमावर्ती इलाकों — जैसे नॉर्थ 24 परगना का बॉन्गांव/स्वरूपनगर क्षेत्र और उसके आस-पास — पर यह रिपोर्ट हुई कि सत्यापन-प्रक्रियाओं और SIR के आरम्भ के बाद बड़ी संख्या में बांग्लादेशी लोग, जिनके पास आयु-समय से अधिक वर्षों का भारत में बसे होने का दावा था, “स्वेच्छा” से या सत्यापन के बाद घर लौटने लगे। कुछ रिपोर्टों में यह भी कहा गया कि हर रोज़ सैकड़ों लोगों के वापस जाने के रिकॉर्ड बने। इन सूचनाओं ने स्थानीय सार्वजनिक बहस को तेज़ किया कि यह स्वदेश वापसी का क्रम कितना स्वैच्छिक है और कितनी दबावपूर्ण।

आँकड़े और आधिकारिक कार्रवाइयाँ — क्या कहा जा रहा है?

सीमापार अवैध आगमन, पकड़/हिरासत और पीछे भेजने (pushback) को लेकर अलग-अलग एजेंसियों के अपने आँकड़े हैं। BSF (बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स) और रेलवे सुरक्षा बलों (RPF) जैसी संस्थाओं ने समय-समय पर बताए हैं कि वे विभिन्न अभियानों में कई विदेशी नागरिकों को पकड़ चुके हैं — इनमें बांग्लादेशी और रोहिंग्या भी शामिल रहे हैं। उदाहरण के लिए रेलवे सुरक्षा बल ने 2021 से 2024/25 के बीच कई बांग्लादेशी और रोहिंग्या प्रवासियों को पकड़ने के अपने आँकड़े साझा किए हैं, और BSF ने भी पिछले कुछ वर्षों में सीमापार अवैध सक्रियता को रोकने का दावा किया है।

एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि पकड़े जाने व पीछे भेजे जाने वाले व्यक्तियों की संख्या वर्षों के अनुसार घटती-बढ़ती रही है — 2023 और 2024 में पकड़े गए व्यक्तियों की संख्या अलग थी, तथा 2025 के पहले हिस्से में कुछ क्षेत्रीय रुझान बदलते दिखे। इन आँकड़ों से सीधे तौर पर पूरे प्रवासन की परिमाणिक स्थिति नहीं निकाली जा सकती क्योंकि एक पकड़े जाने वाले व्यक्ति के पीछे अनेक अनगिनत अप्रत्यक्ष प्रवास भी होते हैं, और पकड़े जाने का आँकड़ा डिटेक्शन-सक्षमताओं पर निर्भर होता है।

कारण: लोग क्यों आते हैं — धकेलने और खींचने वाले कारक

किसी भी अंतर्राष्ट्रीय सीमावर्ती प्रवासन का विश्लेषण ‘पुश’ (push) और ‘पुल’ (pull) कारकों के संदर्भ में किया जाता है:

  • आर्थिक कारक: सीमावर्ती क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर, कृषि काम या असंगठित क्षेत्र की ज़रूरतें स्थानीय-अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं। कभी-कभी बांग्लादेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में रोज़गार-अभाव, बाढ़/प्राकृतिक आपदा या खेती की अस्थिरता लोगों को सीमापार रोज़ी की तलाश में प्रेरित करते हैं।

  • सामाजिक-सांस्कृतिक जुड़ाव: बंगाली-भाषा, सांस्कृतिक आदतें और पारिवारिक रिश्ते दोनों ओर के सीमावर्ती जिलों को जोड़ते हैं; इसका अर्थ है कि सीमापार पारंपरिक बँटवारा आज भी कई घरों, रिश्तों और व्यापारिक सम्बन्धों को जोड़ता है।

  • पहचान-विवाद और नागरिकता नीति: पिछले कुछ वर्षों में नागरिकता से जुड़ी राष्ट्रीय-नीति (जैसे CAA — Citizenship Amendment Act, और राज्यों के स्तर पर NRC/SIR जैसे अभ्यास) ने भी लोगों की स्थिति पर असर डाला है; कुछ लोग दस्तावेज़ीकरण की जटिलताओं, पहचान-जिरह और भय के कारण अस्थायी रूप से स्थान बदल लेते हैं। वहीं, इन नीतियों और जिरह के राजनीतिक वातावरण ने भी समाज में तनाव पैदा किए हैं।

इन कारणों के मिश्रण से सीमावर्ती इलाके अक्सर “अर्ध-स्थायी” निवासियों का केंद्र बन जाते हैं — न तो पूरी तरह वैधता, न ही पूर्ण विस्थापन — जिससे स्थानीय प्रशासन, सुरक्षा बल और नागरिक समाज के लिए चुनौतियाँ बढ़ती हैं।

प्रभाव — स्थानीय जीवन पर असर

  1. संसाधनों पर दबाव: स्कूल, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ, मतदाता व्यवस्थाएँ और सामाजिक कल्याण योजनाएँ सीमावर्ती ब्लॉकों में अधिक दबाव का सामना कर सकती हैं। जहाँ लंबे समय तक बसे लोग सरकारी योजनाओं का लाभ उठा चुके होते हैं, वहीं पहचान-जाँच के बाद विवाद उत्पन्न हो जाता है।

  2. सामाजिक तनाव और राजनीतिक उपयोग: प्रवासन-मुद्दे का राजनीतिकरण स्थानीय चुनावों और रैलियों का हिस्सा बन चुका है। “अवैध प्रवासी” का टैग कभी-कभी सामाजिक चुनौतियाँ और साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए उपयोग होता है। यह चीज़ स्थानीय समुदायों में भय, गतिरोध और असुरक्षा की भावना बढ़ा सकती है।

  3. सुरक्षा व सीमा-व्यवहार: सीमा पार मादक पदार्थों की तस्करी, मानव तस्करी और अन्य अपराधों से निपटने के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती और निगरानी बढ़ती है। इससे कई बार हिंसक झड़पें और गिरफ्तारी-कार्रवाइयाँ भी सामने आती रही हैं।

  4. मानवाधिकार-चिन्ताएँ: मानवाधिकार समूहों और निगरानी रिपोर्टों ने ऐसी घटनाओं की ओर भी इशारा किया है जहाँ दस्तावेज़ीकरण की कमी या गलत पहचान के कारण लोगों को उत्पीड़न और अवैध निर्वासन का सामना करना पड़ा है। इन रिपोर्टों का कहना है कि कई बार स्थानीय नागरिकों के पास वैध दस्तावेज़ होने के बावजूद भी उन्हें ‘बांग्लादेशी’ बताकर हटाया गया या हिरासत में लिया गया — जिससे बड़े-पैमाने पर मानवाधिकार चिंताएँ उठती हैं।

कानून और नीति का ढांचा — क्या लागू होता है?

भारत में विदेशी नागरिकों और अवैध प्रवासियों से निपटने के लिए एक जटिल कानूनी व्यवस्था है: विदेशी नागरिकों के प्रवेश, निवास और निकास को नियंत्रित करने वाले क़ानूनों के साथ-साथ प्रशासनिक आदेश और राजनीति-निहित नीतियाँ भी काम करती हैं। सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के फैसले, गृह मंत्रालय के आदेश और सीमा सुरक्षा बलों की नीतियाँ इस क्षेत्र में निर्णायक रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी अवैध प्रवासियों के कानूनी अधिकारों पर अपने मत व्यक्त किए हैं — और कहा है कि अवैध प्रवासियों के कुछ सीमाएँ होती हैं — पर व्यावहारिक मामलों में यह निर्धारित करना कि कौन ‘अवैध’ है, अक्सर दलीलों, दस्तावेजों और स्थानीय सत्यापन पर निर्भर करता है।

मानव-कहानियाँ: आँकड़ों के पार

जो भी आँकड़े और नीतियाँ हों, सीमावर्ती गाँवों में अक्सर परिवारों की कहानियाँ गूंजती हैं — ऐसे लोग जिनके पास कई सालों से भारत में रहकर आधार या वोटर कार्ड जैसे दस्तावेज़ बन गए, पर फिर भी कुछ अधिकारियों द्वारा उन्हें संदिग्ध घोषित कर दिया गया। दूसरी ओर, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सीमापार बांग्लादेश से आकर वर्षों से अस्थायी काम कर रहे थे और अब सत्यापन-अभियानों में पकड़े गए हैं। इन व्यक्तिगत कहानियों के भावनात्मक और सामाजिक परिणाम होते हैं — परिवार टूटते हैं, बच्चे शिक्षा से कटते हैं, और रोज़ी-रोज़गार छिन जाता है। मानवाधिकार संगठनों ने ऐसी व्यक्तिगत परेशानियों का दस्तावेजीकरण किया है और न्यायसंगत, पारदर्शी और मानवीय प्रक्रिया की माँग की है।

भेदभाव और सुरक्षा के बीच संतुलन — चुनौती क्या है?

सरकार और सुरक्षा एजेंसियों का दायित्व है कि वे देश की संप्रभुता और सुरक्षा सुनिश्चित करें, वहीं मानवाधिकार संगठन और नागरिक-समाज यह कहते हैं कि किसी भी पहचानी प्रक्रिया में पारदर्शिता, उचित-कानूनी प्रक्रिया और संवेदनशीलता होना चाहिए। वास्तविक चुनौती यह है कि कैसे सीमा-निगरानी, पहचान-जाँच और स्थानीय प्रशासन एक तरीके से लागू करें जो सुरक्षा को ध्यान में रखे पर आम नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन न हो। यह संतुलन तब और कठिन हो जाता है जब राजनीतिक विमर्श और चुनावी माहौल में यह मुद्दा उभरता है।

सुझाव और राहें — समस्या का व्यवहारिक समाधान

समस्या का स्थायी समाधान कई स्तरों पर सामूहिक नीतियों और क्रियान्वयन से गुजरता है:

  1. पारदर्शी सत्यापन-प्रक्रियाएँ: पहचान-जाँच की पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए — बायो-मेट्रिक्स, दस्तावेज़ सत्यापन और लोकल प्रमाणपत्र की प्रक्रियाओं को लोगों तक समझकर लागू किया जाना चाहिए तथा गलतियों की स्वतंत्र समीक्षा का सिस्टम होना चाहिए।

  2. मानवाधिकार की गारंटी: गिरफ्तारी, हिरासत या निर्वासन से जुड़ी कार्रवाइयों में बुनियादी कानूनी अधिकारों की पालना सुनिश्चित की जानी चाहिए — जैसे कानूनी सहायता, परिवार से संपर्क और ठीक-ठाक कारावास की प्रक्रिया।

  3. विकास और समावेशन: सीमावर्ती इलाकों में आजीविका के विकल्प बढ़ाने से पारंपरिक प्रवासन-प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जा सकता है — रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाओं का सुदृढ़ वितरण जरूरी है।

  4. दस्तावेज़ीकरण के अभियान: दस्तावेजों के निर्माण, पुनरावलोकन और गलतियों के सुधार के लिये अभियान चलाए जाएँ — ताकि जो असली नागरिक हैं, उन्हें गलत रूप से ‘अवैध’ घोषित होने का खतरा कम हो।

  5. पड़ोसी देश के साथ सहयोग: सीमा-सुरक्षा, पहचान-सत्यापन और मानव अधिकारों के मामलों में द्विपक्षीय संवाद व सहयोग बढ़ाना चाहिए — तस्करी, मानव तस्करी और आतंकवाद जैसी चुनौतियों से मिलकर निपटना होगा।

आंकड़ों, कथाओं और नीति का मेल

पश्चिम बंगाल और बिहार के सीमावर्ती इलाकों में बांग्लादेशी निवासियों का प्रश्न सिर्फ़ कानून बनाम अवैधता का सवाल नहीं है — यह सामाजिक, आर्थिक और मानवीय आयामों वाला जटिल विषय है। आँकड़े बताते हैं कि सुरक्षा बल सक्रिय हैं और पकड़े जाने/पिछे भेजे जाने के कम्पोनेंट हैं; वहीं मानवाधिकार रिपोर्टें चेतावनी देती हैं कि दस्तावेज़ी त्रुटियों और पहचान-गलतियों से निर्दोषों को भी असर हो सकता है। स्थिति का समाधान केवल कड़ी कार्रवाई या केवल मानवीय अपील से नहीं निकलेगा — बल्कि पारदर्शी प्रक्रिया, स्थानीय विकास, द्विपक्षीय सहयोग और संवैधानिक सुरक्षा के बीच संतुलन से ही स्थायी राह निकलेगी।

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